गणेश जी की आरती का अर्थ:
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
अर्थ:
जय हो आपकी, श्री गणेश, जय हो आपकी, श्री गणेश, हमारे प्रिय देवता। आप माता पार्वती और भगवान शिव के शक्तिशाली पुत्र हैं॥
एक दन्त दयावन्त चार भुजा धारी।
माथे पर तिलक सोहे मूसे की सवारी॥
अर्थ:
हे भगवान गणेश, आपके पास एक दांत और चार भुजाएं हैं। आपके माथे पर सिंदूर का तिलक लगा हुआ है, और आप अपने विनम्र वाहन मूसे पर सवारी करते हैं॥
हार चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा।
लड्डुअन का भोग लगे सन्त करें सेवा॥
अर्थ:
आपके भक्त, आपकी पूजा करते समय प्यार और भक्तिभाव से आपको पान के पत्ते, फूल और मेवे चढ़ाते हैं। उसी तरह आपको आपके पसंदीदा लड्डू भी चढ़ाये जाते हैं, हे भगवान गणेश। और दुनिया के सारे सन्त अपना जीवन आपकी सेवा में अर्पण करते हैं॥
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
अर्थ:
जय हो आपकी, श्री गणेश, जय हो आपकी, श्री गणेश, हमारे प्रिय देवता। आप माता पार्वती और भगवान शिव के शक्तिशाली पुत्र हैं॥
अंधे को आँख देत कोढ़िन को काया।
बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया॥
अर्थ:
हे भगवान गणेश, आप एक अंधे को दृष्टि प्रदान करते हैं और एक कोढ़ी को बीमारी से मुक्ति देते हैं। आप एक बांझन को औलाद पाने का वरदान देते हैं और गरीबों को धन प्रदान करते हैं॥
सूर श्याम शरण आए सफल कीजे सेवा।
माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
अर्थ:
हम सब दिन और रात आपकी पूजा और भक्ति में मगन हैं, हे श्री गणेश, कृपया हमें सफलता का आशीर्वाद दें। आखिरकार आप माता पार्वती और भगवान शिव के शक्तिशाली पुत्र हैं॥
दीनन की लाज राखो, शम्भु सुतवारी।
कामना को पूर्ण करो, जग बलिहारी॥
अर्थ:
हे भगवान शंकर के पुत्र, दीन-दुखियों की पुकार सुनो और उनकी कामनाएं पूरी करो। पूरा संसार आपको शीश झुकाता है।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
अर्थ:
जय हो आपकी, श्री गणेश, जय हो आपकी, श्री गणेश, हमारे प्रिय देवता। आप माता पार्वती और भगवान शिव के शक्तिशाली पुत्र हैं॥
श्री गणेश जी के बारे में
विघ्नेश्वर की प्रत्येक बात में ही कोई-न-कोई बड़ा तत्त्व निहित है। उनके शरीर की मुटाई के सदृश अन्य किसी देवता के शरीर को मुटाई नहीं दीखती। हाथीका-सा मस्तक और लम्बा-स्थूल शरीर यह गणेश जी को शुभ आकृति है। उनका 'स्थूलकाय' नाम भी प्रख्यात है। बच्चे हृष्ट-पुष्ट रहें-इस भावना के प्रतीक हैं भगवान् गणपति। वे तो विशालकाय हैं, किंतु उनका वाहन मूषक अत्यन्त लघुकाय है। अन्य देवताओं के वाहन बने हैं, पशु-पक्षी; जैसे-सिंह, अश्व, गरुड़, मयूर आदि। भगवान्ने किसी को भी वाहन बना रखा हो, उस वाहन से भगवान्को नहीं, उनके सम्पर्क से उस वाहनको ही महत्त्व प्राप्त होता है। महामहिम भगवान् लघु से लघुको भी अनुगृहीत करते हैं, यही भाव भगवान् गणपति के मूषक को अपना वाहन बनाने से प्रकट होता है। हाथी को अपना दाँत बहुत प्यारा होता है; वह उसे शुभ्र बनाये रखता है; परंतु हाथी के मस्तक वाले भगवान् गणपति ने क्या किया है? अपने एक दाँत को तोड़कर, उसके अग्रभाग को तीक्ष्ण बनाकर उसके द्वारा उन्होंने महाभारत-लेखन का कार्य किया। विद्योपार्जन के लिये, धर्म और न्यायके लिये प्रिय से प्रिय वस्तु का त्याग करना चाहिये यही तत्त्व या रहस्य इससे प्रकट होता है। भगवान्को लेखनी-जैसे साधन की आवश्यकता नहीं, वे चाहें तो किसी भी वस्तुको साधन बनाकर उससे लिख सकते हैं।
श्री गणपति प्रणव-स्वरूप हैं। सँड़ के साथ उनके मस्तक को और हाथ के मोदक आदि को एक साथ देखें तो प्रणवका रूप मिलेगा। इस प्रणव का भ्रूमध्य में ध्यान करते हुए तमिळ-प्रदेशीय भक्तों ने औवे नामक 'विनायक आहवाळ' की रचना की थी, जिसमें योग शास्त्र तथा योग पद्धति का वर्णन है।
श्री गणेश उमा-महेश्वर के पुत्र हैं। उनको 'भगवान्' कहने की अपेक्षा 'शिव-पुत्र' कहने में ही अधिक आनन्द आता है। किसी भी भगवद्विग्रह की आराधना क्यों न करें, उसमें प्रथमतः हमें विघ्नेश्वर गणेश की पूजा करनी ही होगी, तभी वह काम बिना विघ्न के सम्पन्न हो सकेगा। हमारे प्रदेश की प्रत्येक गली के कोने में विघ्नेश्वर के मन्दिर दीखते हैं। उन्हीं की प्रधान देवता के रूप में आराधना करने का नाम 'गाणपत्यत्वम्' है।
अपने लिये चक्र की प्राप्ति के निमित्त महाविष्णु ने विघ्नेश्वर के आगे 'दोर्भिकर्ण' करके आदर प्रदर्शित किया था। 'दोर्भिकर्ण' का अर्थ होता है-हाथों से कान पकड़ना।
विघ्नेश्वर के अनुग्रह से जगत्के सारे कार्य निर्विघ्न सिद्ध होते हैं। हम भी उनके अनुग्रह के पात्र बनें।
श्री गणेश पूजन की महत्ता
अनादिकाल से ही भारत सदैव आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न देश रहा है। अन्य देशों से भारत के वैशिष्ट्य का यही कारण है। आध्यात्मिक शक्ति-सम्पत्ति के लिये प्राचीन ऋषियों ने अनेक साधन आविष्कृत किये हैं। उनमें से निर्दिष्ट पर्वकालों में निर्दिष्ट देवता का पूजन और आराधन एक है। यह पूजा और आराधना व्यष्टि और समष्टि के भेद से दो प्रकार की होती है। हमारे पूर्वजों का यह विचार नहीं था कि एक व्यक्ति ही पूर्वोक्त आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न हो; अपितु वे उस शक्ति का संचार समष्टि में भी चाहते थे। बिना शक्ति के चाहे ऋषि हों या देव, कोई भी अपने मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ नहीं होते। आचार्य शंकर ने कहा है कि 'शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुम्'। कार्य की सामान्य सिद्धि के लिये अन्य कारणों के साथ 'प्रतिबन्धकसंसर्गाभाव' को भी शास्त्रकारों ने एक कारण माना है। यह प्रतिबन्धक अदृष्टरूप है अर्थात् यह मानव के दृष्टि गोचर नहीं होता। जो वस्तु दृष्टिपथ में नहीं आती, कार्य-सिद्धि के न होने से उसका अनुमान होता है। मानव अन्य सभी कारणों के रहते हुए भी कार्य के सम्पन्न न होने से प्रतिबन्धक या विघ्न का अनुमान करता है। वह विघ्न या प्रतिबन्धक तब तक नहीं हट सकता, जब तक प्रबल अदृष्टशक्ति का अवलम्बन नहीं लिया जाय। विघ्न-बाधाओं के दूर करने के लिये ही विघ्नेश्वर की शरण ली जाती है। अतएव छोटे मोटे-सभी कार्यों के आरम्भ में 'सुमुखश्चैकदन्तश्च' आदि द्वादश नामों का स्मरण करके कार्यारम्भ करते हैं।

यों तो नाम स्मरण का माहात्म्य छिपा नहीं है, फिर भी भागवत आदि ग्रन्थों में नामके स्मरण का विशेष माहात्म्य प्रतिपादित है। इन द्वादश नामों के कीर्तन की फलश्रुति इस प्रकार है-
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥
केवल नाम-स्मरण या संकीर्तनमात्र से संतुष्ट न रहकर हमारे पूर्वजों ने श्रीगणेश के एक पूजाक्रम का भी प्रवर्तन किया है। इस क्रम के प्रवर्तन में वैदिक मन्त्र, पौराणिक विधि एवं तन्त्र के कुछ अंशों का भी अवलम्बन लिया गया है। इसी से श्रौत, स्मार्त, पौराणिक या तान्त्रिक, जो भी कर्म हों, उनके प्रारम्भ में गणेशजी की ही आराधना होती है और इस आराधना में परस्पर कुछ वैलक्षण्य भी देखा जाता है। यह तो अन्य कर्मों के आरम्भ करने की बात है; किंतु जब भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी का पर्व आता है, तब उसके प्रारम्भ में भी विघ्नहरणार्थ विघ्नेश-पूजा की जाती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक अंग-पूजन है और एक प्रधान-पूजन। श्रीगणेश जी का अंग के रूप में जो पूजन है, वह विघ्नहरण के निमित्त है और प्रधान पूजन सभी मनोरथों की सिद्धि के निमित्त है। एक ही देवता का कभी अंग और कभी प्रधानता के रूप से पूजित होना अनुचित नहीं है। पारमार्थिक दृष्टि से देवताओं में उच्च-नीच भाव नहीं है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि में यह अपरिहार्य है।
भारतीय संस्कृति में श्री गणेश जी
भगवत्पाद श्री शंकराचार्य जी जैसी महान् आत्मा, जिन्होंने आसेतु-हिमाचल भारत में भेदभाव के बिना अद्वैत-सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की, वे ही भगवत्पाद 'षण्मतप्रतिष्ठापनाचार्य' भी कहे जाते हैं।
षण्मत हैं-
गाणपत्य-सौर-शैव-वैष्णव-शाक्त और कौमार। इन मतों में कोई किसी मत का भी हो, उसे अन्य मतों का भी आदर करना पड़ता है। इससे अद्वैतभाव की कोई हानि नहीं होती।
देश और प्रान्त के भेद से पूजन का भेद उपलब्ध होने पर भी भारत भर में भाद्र-शुक्ल-चतुर्थी एवं माघ कृष्ण-चतुर्थी के दिन श्री गणेशोत्सव विशेष रूप से प्रचलित है। श्री विद्याक्रम में गणेश-पूजन को 'महागणपति-सपर्या' कहते हैं।
'महागणपति' शब्द यहाँ एक विशेष अभिप्राय से लिया जाता है। महागणपति मनु में २८ अक्षर होते हैं। संख्या शास्त्र के अनुसार 'महागणपति' शब्द भी २८ संख्या का अवबोधक है।
'शूर्पकर्ण' शब्द में भी बहुव्रीहि-समास है और उसका अर्थ होता है- सूप के समान बड़े-बड़े कर्ण हैं जिनके, वे गणेश। अर्थात् जिस प्रकार सूप से अन्न में से दूषित तत्त्वों को फटककर उन्हें परिष्कृत कर दिया जाता है, उसी प्रकार श्री गणेश अपने शूर्पकर्णो से भक्तजनों के विघ्नों का निवारण कर विविध ऐश्वर्य तथा ज्ञान प्रदान करते हैं।
'गजवक्त्र' शब्दार्थ के प्रतिपादन में कहा गया है कि जिनके मस्तक पर मुनि के द्वारा प्रदत्त विष्णु का प्रसाद रूप पुष्प विराजमान है तथा जो गजेन्द्र के मुख से युक्त हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।
'गुहाग्रज' शब्द में षष्ठीतत्पुरुष समास के योग से इसका तात्पर्य है कि जो गुह-स्वामि कार्तिकेय से पूर्व जन्म ग्रहण कर शिव के भवन में आविर्भूत हुए तथा समस्त देवगणों में अग्रपूज्य हैं, उन गुहाग्रजदेव की मैं वन्दना करता हूँ। गुहाग्रज-शब्द में 'गुहः अग्रजो यस्य सः' इस प्रकार बहुब्रीहि-समास करने पर श्री गणेश स्वामि कार्तिकेय के अनुज भी सिद्ध होते हैं।
श्री गणेश जी के दो नाम
गजानन और द्वैमातुर ये दो विशिष्ट नाम रहस्यात्मक हैं। इनके रहस्योद्घाटन में एक पौराणिक उपाख्यान को उल्लिखित करना उपयोगी प्रतीत होता है। एक बार देवराज इन्द्र 'पुष्पभद्रा' नदी के तटपर आये। राजश्री से समन्वित, मदोन्मत्त कामातुर के रूप में वे इधर-उधर देख रहे थे। उस नदी के तीर पर एक अति मनोरम पुष्पोद्यान था और वहाँ थी पूर्ण एकान्त निर्जनता। उस समय महेन्द्र ने चन्द्रलोक से आती हुई परम सुन्दरी अप्सरा रम्भाको देखा। रम्भा की स्वीकृति पाकर देवेन्द्र उसके साथ क्रीड़ा करने लगे। स्थल क्रीड़ा के अनन्तर दोनों ने जल क्रीड़ा की। इसी मध्य वहाँ अकस्मात् महर्षि दुर्वासा आ धमके। वे वैकुण्ठ से शिवलोक को जा रहे थे। महेन्द्र ने उन्हें सादर प्रणाम किया और महर्षि से आशीर्वचन पाये। मुनीन्द्र दुर्वासा ने नारायण से प्राप्त एक पारिजात पुष्प महेन्द्र को देकर कहा 'यह पुष्प सम्पूर्ण विघ्नों का हरणकर्ता है। जो इसे सादर अपने मस्तक पर धारण करता है, वह सर्वथा तेजस्वी, बुद्धिमान्, विक्रमी, बलशाली, समस्त देवों से अधिक श्री सम्पन्न तथा हरितुल्य पराक्रमी होता है और जो पामर अहंकारवश इस हरिप्रसाद रूप पुष्प को सादर सिर पर धारण नहीं कर अपमानित करता है, वह अशेष श्री सम्पत्ति से भ्रष्ट होकर स्वजनों से च्युत हो जाता है।' यह कहकर महर्षि दुर्वासा शिवलोक को चलते बने। इन्द्र ने अहंकारवश उस पुष्प को अपने सिरपर न धारण कर रम्भा के समक्ष ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। इससे तुरंत शक्र श्री भ्रष्ट हो गये। इन्द्र को श्रीभ्रष्ट देखकर रम्भा उन्हें छोड़कर स्वर्ग चली गयी। गजराज इन्द्र को नीचे गिराकर अनन्त महारण्य में चला गया और हथिनी के साथ विहार करने लगा। उस वन में उसके बहुत-से बच्चे हुए। इसी समय श्रीहरि ने उस हाथी का मस्तक काटकर बालक गणेश की शनैश्चर की कुदृष्टि से कटी गर्दन में लगा दिया।
सम्भवतः इसी कारण श्री गणेश 'द्वैमातुर' कहे गये 'द्वयोर्मात्रोरपत्यं पुमान् द्वैमातुरः।' अर्थात् उनकी एक माता जननी पार्वती और दूसरी माता वह हथिनी हुई, जिसके पुत्र का मस्तक गणेश में योजित किया गया था। उसी समय से वे 'गजानन' की संज्ञा से भी घोषित हुए।
एकदन्तता रहस्य के प्रतिपादन में भी इसी प्रकार एक पौराणिक उपाख्यान उद्धरणीय प्रतीत होता है। इस पृथ्वी को इक्कीस बार भूपशन्य कर और महावीर कार्तवीर्य तथा बलवान् सुचन्द्र को मार चुकने के पश्चात् परशुराम अपने गुरु शंकर, माता पार्वती, भ्राता गणेश तथा कार्तिकेय के दर्शन को कैलास पर्वत पर पहुँचे।
वहाँ पर परशु राम ने अपने परमगुरु भगवान् शिव को प्रणाम करने के लिये भीतर जाने की इच्छा प्रकट की। इस पर द्वार पर स्थित गणेश ने उन्हें रोक कर कहा-'अभी भगवान् शंकर निद्रित हैं। उनके जग जाने पर उनसे आज्ञा लेकर मैं भी आपके साथ ही चलूँगा-कुछ समय तक आप प्रतीक्षा करें।' गणेशके रोकनेपर भी परशुराम रुकना नहीं चाहते थे। अब दोनों में वाग्युद्ध होने लगा। वाग्युद्ध के बढ़ते-बढ़ते दोनों क्रोधा विष्ट हो गये।
अब परशुराम गणेश पर अपने फरसे से आक्रमण करने को पूर्ण रूप से प्रस्तुत हो गये; परंतु कार्तिकेय के मध्य में पड़ जाने से कुछ क्षणिक शान्ति आयी। क्षणोपरान्त पुनः परशुराम ने गणेश को धक्का दिया और वे गिर पड़े। पुनः उठकर गणेश ने परशुराम को फटकारा। इस पर परशुराम ने कुठार उठा लिया। तब गणेश अपनी सूंड में परशुराम को लपेटकर घुमाने लगे और घुमाते-ही-घुमाते गणेश ने उन्हें तीनों लोकों का दर्शन कराकर गोलोक वासी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन कराये। अब परशुराम ने अपने अभीष्टदेव श्रीकृष्ण, अपने गुरु शम्भु के द्वारा प्रदत्त परम दुर्लभ कवच और स्तोत्र का स्मरण किया। तदनन्तर परशुराम ने अपने उस अमोघ कुठार को, जिसकी प्रभा ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक सूर्य-प्रभा से सौगनी थी और जो तेज में शिव-तुल्य था, गणेश पर चला ही दिया। पिता के उस अमोघ अस्त्र को आते देखकर स्वयं गणपति ने उसे अपने वाम दन्त से पकड़ लिया उस अस्त्र को व्यर्थ नहीं होने दिया। तब महादेव के बल से वह कुठार वेगपूर्वक गिरकर मूलसहित गणेश के दाँत को काटकर पुनः परशुराम के हाथ में लौट आया। तब से गणेश 'एकदन्त' के नाम से अभिहित होने लगे।
इस पौराणिक उपाख्यान से गणेशका 'एकदन्तत्व' सिद्ध और चरितार्थ होता है।